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शनिवार, 17 अगस्त 2013

बतहा संसार

बतहा संसार

भोरसँ साँझ धरि
साँझसँ भोर धरि
असलमे भोरसँ भोर धरि
भटकैत रहैत अछि लोक
एकटा सुख्खल रोटीक लेल
दौड़ैत रहैत अछि ओ
अपनासँ पैघ लोक आगू-पाछू
ठिठियाइत अछि ओ पैघ लोक
सड़ल, गेन्हाएल आम जकाँ
फेक दैत अछि नचा कऽ
बहुते दूर छोट लोककेँ
पैघक घुसखोर चमचा जकाँ
ओहि सड़ल आममे
सटैत अछि चुट्टी, भौंरा, बिढ़नी
चूसि लैत अछि मिठास
मने इज्जत, टाका आ खूनकेँ
आब बचैत अछि
कानैत थाकल लोक सन आँठी
ओ आँठी फेर बढ़ैत अछि
गाछ बनि, आम बनि
फेरसँ आँठिये शेष बचैत अछि
छोट सदिखन पैघ लऽग जाइत अछि
आ बचैत अछि छोटोसँ छोट बनि
आखिर एते किए बौआइत अछि,
हकमैत अछि बतहा संसार ?

अमित मिश्र

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