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गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

परिजात हरण: मंगलकामनाक नाटक

डॉ. प्रेम शंकर सिंह

पारिजात हरणकेँ कीर्तनिञा शैलीक प्रथम नाटक मानल जाइत अछि। कतिपय विद्वान् ऐतिहासिक तथ्यक आधापर ई सिद्ध करबाक प्रयास कयल अछि जे उमापति उपाध्यायक स्थितिकाल विद्यापतिसँ पूर्वक थिक। मुदा जेँ कि अद्यापि एहन कोनो ठोस प्रमाण नञि उपलब्ध भऽ सकल अछि, तेँ हम विद्यापतिक ‘गोरक्ष विजय’ केर बादे एक नाटकक रचना-कालकेँ एहि लेखमे स्वीकार कयल अछि। सर्वप्रथम ग्रियर्सन महोदय एहि नाटकक प्रमाणिक संस्करण प्रकाशित कराओल, तत्पश्चात् चन्दा झा तथा चेतनाथ झा सेहो एकर सम्पादन कयलन्हि। किछु  दशक पूर्व डा. बजरंग वर्मा ‘नव परिजात मंगल’ नामसँ एकर एक प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित कयल अछि।
प्रस्तुत नाटकक प्रचलति नाम ‘पारिजात हरण’ अछि, किन्तु स्वयं नाट्यकार नाटकक प्रस्तावनामे, एकरा ‘नव पारिजात मंगल’ नामसँ अभिहित कएने छथि। उक्त नाटकक कथा-वस्तुकेँ उमापति उपाध्याय नवीन ढंगसँ प्रस्तुत कयलनि, तेँ एकर नाम ओ ‘नव पारिजात मंगल’ रखलन्हि। डा. बजरंग वर्मा अनेक प्रमाणक आधारपर ई मान्यता उपस्थित कयलनि अछि जे उक्त कथावस्तुकेँ अपना कऽ संस्कृतमे अनेक विद्वान् रचना प्रस्तुत कयने छथि, किन्तु उपलब्ध सामग्रीक आधारपर ई कहल जा सकैछ जे सर्वप्रथम उमापति उपाध्याय सैह लोकभाषामे एहि घटनाकेँ नाटकक रूप प्रदान कयलनि।
उमापति अपन रचनाक आधार हरिवंश पुराणक कथाकेँ बनौने छथि, किन्तु ओ अपन प्रतिभाक आधारपर, कतिपय एहि प्रकारक परिवर्त्तन सेहो कयने छथि जाहि कारणेँ घटनामे स्वाभाविकता, सरलता नाटकीयताक समावेश अनायासहि भऽ गेल अछि। कतिपय विद्वानक अनुसारेँ बंगलामे प्रचलित कीर्तनक प्रभाव मिथिलाक नाट्य साहित्यपर पड़ल। अत: सम्भावना इएह जे ओहिसँ प्रभावित भऽ उमापति सर्वप्रथम ओकरा नाटकक रूप देने होयताह कालान्तरमे कीर्तन गेनिहार अभिनेताक मंडली कीर्तन प्रणालीपर नाटकक एहि नव रूपक अभिनय प्रस्तुत कयने होयताह जकर परिणामस्वरूप एहि शैलीक रचनाकेँ कीर्तनिञा नाटकक नामसँ अभिहित कयल गेल होयत। किछु विद्वान्क मत छनि जे कीर्तनिञा शैलीक नाटकक पुरष्कर्ता उमापति, भगवान् कृष्णक मूर्तिक समक्ष कीर्तनक रूपमे प्रस्तुत नाटकक गीतसभकेँ गबैत आ तदनुकूल अभिनय करैत छला। अत: अपन धार्मिकता, गीतात्मका एवं कीर्तन शैलीक कारणेँ एकरा कीर्तनिञा नाटक कहल गेल आ एहि शैलीपर लिखल गेल नाटक सभकेँ सेहो उक्त नामसँ अभिहित कयल गेल।
नाट्य साहित्यक संक्रांति कालमे शास्त्री एवं जन नाट्य शैलीमे तात्विक मिश्रण भऽ रहल छल। अत: उमापतिक नाटकमे दुनू शैलीक समाहार अछि। शास्त्रीय शैलीक अनुसार नान्दी, प्रस्तावना, पात्र सभक प्रवेशादि-कम तथा भरत वाक्यक विधान कयल गेल अछि। पताका आ प्रकरीक अतिरक्ति शेष तीन अर्थ प्रकृति एवं पञ्च कार्यावस्थाक पालन सेहो कयल गेल अछि। जन-नाट्य शैलीक अनुकरणपर सूत्रधारक स्वरूप नाटकक रचना-विधान, गीत सभक बाहुल्य आदिक समावेश भेल अछि। कीर्तनिञा नाटक मुख्यत: सर्व साधारणक लेल लिखल जाइत छल, संगहि विद्वान्क मनोरञ्जनक सेहो ध्यान राखल जाइत छल। अत: कथाकेँ कोनो प्रकारक ओझरौट सभसँ पृथक राखब आवश्यक छल आ संस्कृत-प्राकृतक संग मैथिली गीत सभक प्रयोग वाञ्छनीय छल। उमापति जन सामान्यकेँ दृष्टिमे राखि कऽ एहि नाटकक रचना कयल आ जाहिमे हुनका पूर्ण सफलता प्राप्त भेलनि। इएह कारण अछि जे हुनक विभिन्न पद विद्यापतिये सदृश जनसामान्य एवं विद्वत् मंडली एतय विस्तारक भयसँ उक्त पोथीक विस्तृत विवेचनाक अवकाश नञि अछि, तथापि नीचाँ किछु पंक्ति उद्धृत करै छी जाहिसँ गत दू शताब्दीक सांस्कृतिक चेतनाक किछु पक्षक उद्घाटन भऽ जायत। उदाहरण द्रष्टव्य थिक-
बाभन वेद खेद नञि आबे, साधुक सन्धि कुजन जनु पावे।
पिशुन पाव जनु नृपतिक काने, गुण बुझि भूप करथु सनमाने।।
एकर पछाति ब्रह्मदासक ‘रूक्मिणी हरण’, कवि रमापतिक ‘रूक्मिणी’वा ‘रूक्मिणी परिणय’, कवि लालक गौरी स्वयंवर, नन्दीपतिक ‘कृष्ण-केलि-माला’ गोकुलानन्दक ‘मान-चरित’, शिवदत्तक ‘गौरी-परिणय’ एवं ‘परिजात हरण’, कर्ण जयानन्दक ‘रूमाङ्ग’, श्रीकान्त गणकक ‘श्रीकृष्ण-जन्म-रहस्य’, कान्हा रामदासक ‘गौरी-स्वयंवर’, रत्नपाणिक ‘उषा हरण’ एवं ‘माधवानल’, कवीश्वर चन्दा झाक ‘अहिल्या चरित’ आदि नाटकक रचना कयल गेल जाहिसँ ई परम्परा पुष्ट एवं समृद्ध बनल। किन्तु कालान्तरमे असामयिकता, अनभिनेयता, पारसी थियेटरक प्रभाव आदि कारणसँ एहि परम्पराक, अवसान भऽ गेल।

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