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सोमवार, 20 मई 2013

भोजक सेहन्ता

बाल कविता-60
भोजक सेहन्ता

पीटैत थारी डोलबैत लोटा
भालू चललै भोज खाए
भादव मास राति अन्हरिया
कते बेर खसलै ठोकर खाए

दबल, सुटकल पाँतिमे बैसल
भू सिमसिम, चूरा फूलल जाए
तौला उनटल माँझ पातपर
बान्ह तोड़ि दही भासल जाए

गड़गड़ बाजै बिजुरी चमकै
तरकारीक प्रतीक्षा बढ़ल जाए
मिठाइ बचल, कोना भोग लगतै?
रसे-रसे बिहाड़ि उठल जाए

एक कऽर दही मुँहमे दैते
भोजक सेहन्ता पूरल जाए
तखने दौड़ल बरखा एलै
देह भीजल, पातो भासल जाए

घरबैया सबकें घर लऽ गेलै
पात सजल, सऽख पूरल जाए
लैत ढकार ,घर दिश दौड़लै
बेर-बेर खसलै ठोकर खाए

अमित मिश्र

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