ओ चाहे जाहि विधा के अपनेला सऽ किऐक नहि हो, परन्तु सभ मानवमें शक्तिसाली बनबाक एक अजीब प्रवृत्ति होयब प्रकृति के देन बुझैछ। जेना पैघ मांसाहारी जीव छोट के माइरके खाइ के स्वभाव रखैत छैक, ठीक तहिना शक्तिसाली बनबाक होड़ अपन-अपन ढंग सऽ हर मानवमें देखल जाइछ।
इतिहास रहलैक अछि डायन-जोगिन के - श्मसान साधक - अघोड़ी - तांत्रिक - ओझा - भगता आदि के! हिन्दू धर्माचरण में शक्तिके उपासना के विशेष परंपरा देखल गेल छैक। मार-सम्हार दू किसिम के धार पर लोक शक्ति के उपासना करैत अछि। हलाँकि विज्ञान एहि आधुनिक काल में सभटा के एक तराजू ‘अंधविश्वास’ में राखि सभ बात के एकमात्र मनोवैज्ञानिक प्रभाव कहि समाप्त करैक प्रयास करैत छैक, आ शिक्षित वर्ग एहि तरहें विज्ञानमें बेसी विश्वास करैत छैक नहि कि वैह पुरान रूढिपूर्ण परंपरा आ अंधविश्वास के कारण कतहु अपन जीवनशैली के प्रभावित करैत छैक। यदि कतहु एहेन बात छहियो तऽ ओ नगण्य छैक आ विज्ञान के धारणा अनुसार मात्र मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण यदा-कदा पढल-लिखल परिवारमें आइयो एहेन तरहक अंधविश्वास बनैत छैक। लेकिन अशिक्षित आ कमजोर वर्गमें आइयो शक्ति-प्राप्ति लेल उपरोक्त विधा के बहुत महत्त्व छैक।
राग आ द्वेष के कारण मानुषिक व्यवहारमें एहेन शक्ति प्रति आकर्षण आयब स्वाभाविक छैक आ सनातन नियम सेहो छैक। गीतामें श्रीकृष्ण बहुत सुन्दर ढंग सऽ एना रहस्योद्घाटन केने छथि:
भावार्थ: ईश्वरके शरणागत (परायण) नहि बनैत - जे विषयके चिन्तन करयवाला पुरुष अछि तेकर विषयमें आसक्ति भऽ जाइछ, आसक्ति सऽ कामना उत्पन्न होइछ, आ कामना सऽ क्रोधके उत्पत्ति होइछ (कारण हर कामना के पुर्ति लेल साधन नहियो रहलापर कामनापुर्तिके तीक्ष्ण भाव आसक्ति द्वारा उत्पन्न कामना में होयब स्वाभाविक छैक।)॥२-६२॥ क्रोध सऽ विवेकशून्यता होइत अछि, अविवेक सऽ स्मृतिके भ्रंश (नाश) आ स्मृतिभ्रंश सऽ बुद्धिके नाश होइत अछि। बुद्धिके नाश सऽ स्वयंके नाश होइछ, संसारसागरमें डूबब निश्चित होइछ॥२-६३॥
अवश्य उपरोक्त सिद्धान्त हरेक मनुष्यके अपन जीवन के दिशा-दशा निर्धारण में बली बनैछ। एहि लेल पुनः ईश्वरके एक सुन्दर दिशा-निर्देशन देल गेल अछि जे योगी आ संत पुरुष अवश्य अपन आचरण में धारण करैत अछि।
भावार्थ: जे मनके वशमें रखनिहार पुरष राग-द्वेष सऽ रहित आ अपन वशमें कैल इन्द्रिय द्वारा विषयके भोग करितो अन्तःकरणके निर्मल बनबैछ, अन्तःकरणके निर्मलता सऽ ओकर समस्त दुःखक नाश भऽ जाइत छैक, किऐक तऽ प्रसन्नचित्त पुरुषके बुद्धि अतिशीघ्र स्थिरता प्राप्त करैत छैक॥२-६४/६५॥
लेकिन ईशमें मनक निक्षेप नहि करनिहार केर बुद्धि आत्मविषयक नहि रहलाके कारण एहेन अयुक्त पुरुषके आत्मविषयक भावना सेहो नहि रहैत छैक। भावनारहित पुरुषके शान्ति नहि भेटैत छैक। आ अशान्त पुरुषके भला सुख कोना? :) (गीता २-६६).
वर्तमान प्रसंगमें एक महिला डायन बनय लेल गुरुके आज्ञानुसार पहिले अपन ३ वर्षक भतीजा के बलि-प्रदान देलक आ पूलिसके छानबीनमें आगां गुरु के कथनानुसार अपनो बेटा के बलिदान देबाक सोच रखने छल से स्पष्ट केलक अछि। एहि डायन लेल वीभत्स अपराध के बोध कम आ शक्ति-सामर्थके भूख बेसी उपरोक्त गीताके सीख के व्यवहारिक रूपमें ग्रहण करैक लेल पूर्ण अछि।
पाठक/साधक वर्ग सँ निवेदन जे अन्तःकरण के शुद्धि इन्द्रियके वशमें राग-द्वेष रहित भऽ के अपन-अपन मानवीय जीवन उच्च मूल्यांकन करी आ समाज के शुद्धीकरणमें सहयोगी बनी।
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