मैथिलि कविता-
किछु दिन भेल,
दिल्ली स’ पटना लौटैत रही,
मोनहीं मोन एकटा
बात सोचैत रही,
ताबेत एकता अर्धनग्न
बच्चा सोझा में आयल,
आ कोरा में अपनों
सौ छोट के लेने,
चट्ट द’ सोझा में औंघरायल,
हम सोचिते रही जे आब की करि,
बच्चा बाजल,-
सैहेब आहां की सोचि
रहल छि ?
हम त’ आब अपनों सोचनाय छोड़ी देने छि,
जौ मोन हुए त दान
करू,
हमरा हालैती पर
सोच क’ नै हमर अपमान करू,
बात सुनी ओकर जेबी
में हाथ देलहुं,
आ ओकर तरहत्थी पर
किछु पाई गाइनि देलहुं,
डेरा पहूँची क’ सोचलहूँ की हम ई नीक केलहुं,
या एकटा निरीह नेन्ना
के भिखमंगी के रास्ता पर आगू बढ़ा देलहुं,
प्रण केलहूँ अछि
जे आब ककरो भीख नहीं देब,
भगवान् आहाँ हमर
प्रण के लाज राखी लेब,
जा हम त अपने भीख
मांगी रहल छि भगवान् सौ,
जो रे भिखमंगा,....छिह.......
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें